TRIBUTE
Kedarnath Singh(1934-2018) is considered one of Hindi literature’s most revered poets. His style of poetic composition held the potential to articulate the most nuanced expressions with the most ordinary language.
Hindi poet Kedarnath Singh passed away on March 19, 2018 at the age of 83. The poet came from Uttar Pradesh. He completed his education from Banaras Hindu University and later taught at Jawaharlal Nehru University.
His poetry stood for a common ground between aesthetics and politics, rural tastes and urban flavour. In his poems, Singh spoke about the potential of the Hindi language and why it had become crucial for Hindi to stand for more than it did, develop more to become the language of science as well as the language of the people.
His poetry is made easily accessible by the fact that he used non-complex language and yet held the potential to speak of nuanced ideas. One of Kedarnath Singh’s revered pieces is entitled ‘Bagh’ which finds a tiger to be its main character. This poem had been published in the 198o’s but even today continues to be widely enjoyed by poetry lovers.
Kedarnath Singh’s well known compositions include Abhi Bilkul Abhi, Zameen pak Rahi Hai, Yahan se Dekho, Akaal mein Saaras, Baagh,Tolstoy aur cycle, Taana Baana among others. Kedarnath Singh was honoured by the Sahitya Kala Akademi Award in 1989.
बनारस
इस शहर में वसंत
अचानक आता है
और जब आता है तो मैंने देखा है
लहरतारा या मडुवाडीह की तरफ़ से
उठता है धूल का एक बवंडर
और इस महान पुराने शहर की जीभ
किरकिराने लगती है
जो है वह सुगबुगाता है
जो नहीं है वह फेंकने लगता है पचखियाँ
आदमी दशाश्वमेध पर जाता है
और पाता है घाट का आखिरी पत्थर
कुछ और मुलायम हो गया है
सीढि़यों पर बैठे बंदरों की आँखों में
एक अजीब सी नमी है
और एक अजीब सी चमक से भर उठा है
भिखारियों के कटरों का निचाट खालीपन
तुमने कभी देखा है
खाली कटोरों में वसंत का उतरना!
यह शहर इसी तरह खुलता है
इसी तरह भरता
और खाली होता है यह शहर
इसी तरह रोज़ रोज़ एक अनंत शव
ले जाते हैं कंधे
अँधेरी गली से
चमकती हुई गंगा की तरफ़
इस शहर में धूल
धीरे–धीरे उड़ती है
धीरे–धीरे चलते हैं लोग
धीरे–धीरे बजते हैं घनटे
शाम धीरे–धीरे होती है
यह धीरे–धीरे होना
धीरे–धीरे होने की सामूहिक लय
दृढ़ता से बाँधे है समूचे शहर को
इस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं है
कि हिलता नहीं है कुछ भी
कि जो चीज़ जहाँ थी
वहीं पर रखी है
कि गंगा वहीं है
कि वहीं पर बँधी है नाँव
कि वहीं पर रखी है तुलसीदास की खड़ाऊँ
सैकड़ों बरस से
कभी सई–साँझ
बिना किसी सूचना के
घुस जाओ इस शहर में
कभी आरती के आलोक में
इसे अचानक देखो
अद्भुत है इसकी बनावट
यह आधा जल में है
आधा मंत्र में
आधा फूल में है
आधा शव में
आधा नींद में है
आधा शंख में
अगर ध्यान से देखो
तो यह आधा है
और आधा नहीं भी है
जो है वह खड़ा है
बिना किसी स्थंभ के
जो नहीं है उसे थामें है
राख और रोशनी के ऊँचे ऊँचे स्थंभ
आग के स्थंभ
और पानी के स्थंभ
धुऍं के
खुशबू के
आदमी के उठे हुए हाथों के स्थंभ
किसी अलक्षित सूर्य को
देता हुआ अर्घ्य
शताब्दियों से इसी तरह
गंगा के जल में
अपनी एक टाँग पर खड़ा है यह शहर
अपनी दूसरी टाँग से
बिलकुल बेखबर!
~ केदारनाथ सिंह